Human Disease Cause and Cure | मानव रोग : कारण एवं निवारण
Human Disease Cause and Cure | मानव रोग : कारण एवं निवारण
मानव में रोग, रोग के कारण और रोग को दूर करने के उपाय व वैक्सीन, प्रतिरक्षा Diseases in humans, causes of disease and remedies and vaccines, immunity
व्यक्ति स्वस्थ या निरोगी तब तक रह सकता है, जब तक कि उसके शरीर के आंतरिक पर्यावरण का समन्वय बाह्य पर्यावरण से बना रहे। बाह्य तथा आन्तरिक पर्यावरण के मध्य समन्वय बिगड़ते ही व्यक्ति के शरीर में विकार उत्पन्न होना प्रारंभ हो जाता है। जिससे मानव का शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है।
विगत कुछ वर्षों से नवीन तकनीकों के विकास से चिकित्सा जगत में क्रांतिकारी विकास हुआ है। सोनोग्राफी, एम. आर. आई, ई. सी. जी, जैसे उपकरणों की मदद से जहाँ रोग निदान में सुविधा हुई है वहीं पर जैव तकनीकी, उन्नत औषधियों, वैक्सीन आदि द्वारा प्रभावी रोग उपचार संभव हो सकता है। जैवप्रौद्योगिकी द्वारा आनुवंशिक रोगों को दूर करने के प्रयास जारी है।
2. अर्जित प्रतिरक्षा – रोगाणुओं के संक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न या बाह्य स्त्रोतों से प्राप्त प्रतिरक्षा अर्जित प्रतिरक्षा कहलाती है। जैसे – चेचक, पोलियो आदि अनेक रोगों से बचाव हेतु हमें बाह्य स्रोतों से शरीर मे प्रतिरक्षा उत्पन्न करनी पड़ती है। बाह्य स्रोतों जैसे टीके लगाकर किसी रोग विशेष के प्रति, प्रतिरक्षा उत्पन्न करना
टीकाकरण या वैक्सीन – टीकाकरण में व्यक्ति के शरीर मे रोग विशेष के दुर्बल अथवा मृत रोगाणु या उनके उत्पाद प्रविष्ट कराये जाते है। इन्हें नष्ट करने के लिए श्वेताणु विशेष प्रकार के प्रोटीन पदार्थ उत्पन्न करते है, जिन्हें प्रतिरक्षी पदार्थ (Antibodies) कहते है। ये प्रतिरक्षी पदार्थ, प्रविष्ट कराये गए रोगाणुओं को तो नष्ट करते है परंतु स्वयं लंबे समय तक शरीर मे बने रहते है। भविष्य में प्राकृतिक रूप से उस रोग विशेष के रोगाणुओं के प्रविष्ट हो जाने पर प्रतिरक्षी पदार्थ उनकी पहचान करके उन्हें तुरंत नष्ट कर देते है।
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(b) पीलिया या हिपेटाइटिस – हिपेटाइटिस या यकृतशोथ, यकृत संबंधित रोग है। इसका रोगजनक “हिपेटाइटिस वायरस” है, जो मुख्यतः संदूषित भोजन, संक्रमित सुई आदि संचरण विधियों द्वारा प्रसारित होता है। यह हिपेटाइटिस ए, बी, सी, डी, ई एवं जी प्रकार का होता है परन्तु इनमे हिपेटाइटिस ए एवं बी प्रमुख है। इस रोग का प्रगटन काल 15-80 दिन है।
रोग के लक्षण : तीव्र ज्वर, ठंड लगना तथा सिरदर्द के साथ रोगी को मचली, वमन के अलावा शारिरिक कमजोरी महसूस होती है। गहरे पीले रंग का मूत्र एवं हल्के रंग का मल इस रोग के प्रमुख लक्षण है।
(d) चिकन पॉक्स –
ये बच्चो में होने वाला एक सामान्य रोग है। इसका रोग जनक वेरिसेला जोस्टर (Varicella zoster) वायरस है, जो संक्रमित के स्पर्श से अथवा उसके उतरे हुए खुरंटो द्वारा फैलता है। एक बार चिकन पॉक्स हो जाने पर बच्चे में इस रोग के प्रति आजीवन प्रतिरक्षा प्राप्त हो जाती है।
रोग के लक्षण : रोग के लक्षण 14-16 दिन में तीव्र प्रकट होते है, ज्वर आता है, सिर दर्द रहता है और भूख नही लगती। साथ ही पीठ और सीने पर गहरे लाल रंग के दाने उभरते है, जिसमे पानी भरने से वो फफोलों में बदल जाता है। कुछ दिनों बाद फफोलों का पानी सूख जाता है और खुरंट निकलने लगते है। ये रोग की संक्रामक अवस्था होती है। रोकथाम एवं उपचार : रोग होने पर रोगी को स्वच्छ वातावरण में पृथक रखना चाहिए। उसके द्वारा इस्तेमाल किए कपड़ों, बर्तनों आदि को निजर्मीकृत किया जाना चाहिए तथा चिकित्सक की सलाह से वेरिसेला जोस्टर इम्यूनोग्लोबिन का इंजेक्शन लगवाया जा सकता है। यह रोग आगे प्रसारित नही हो इसलिए रोगी के खुरण्टो को सावधानी से एकत्र कर जला देना चाहिए। (e) खसरा (मिजल्स) – यह शिशुओ का एक तीव्र संक्रामक रोग है जो परोक्ष सम्पर्क अथवा वायु प्रसारित होता है। इस रोग का रोगजनक रुबीओला वायरस है। रोग के लक्षण : रोग के लक्षण 3-5 दिनों में प्रकट होते है। प्रारम्भिक अवस्था मे मुँह और गले में सफेद चकते बन जाते है, जुकाम से गले में खरखराहट होती है। चार पाँच दिनों पश्चात मुँह पर लाल दाने उभरते है, जो बाद में पूरे शरीर पर फैल जाते है। रोकथाम एवं उपचार – इस रोग से बचाव हेतु एम. एम. आर. का टीका लगाना चाहिए।
(f) डेंगू – डेंगू एक प्रकार का घातक बुखार है, जो डेंगू वायरस के कारण होता है। इसका वाहक एडिस इजिप्टाई (Aedes aegypti) नामक मच्छर है। यह रोग डेंगू बुखार तथा डेंगू रक्तस्त्राव बुखार प्रकार का होता है। जिसमे से डेंगू रक्तस्त्राव बुखार घातक है।
रोकथाम एवं उपचार : इस रोग का वाहक एडीज मच्छर है जो सामान्यतः दिन में ही काटता है। यह मच्छर ठंडे स्थान वाले रुके हुए जल में अंडे देता है। कूलर, रेफ्रिजरेटर की जल संग्राहक प्लेट, ठंडे पानी की मशीन से निकलकर इकट्ठा हुआ जल, भूमिगत जल टैंक इसके प्रजनन हेतु उपयुक्त स्थल होते है। घरों के आस पास जल एकत्रित नही होने देना चाहिए तथा एकत्र जल पर केरोसिन छिड़कना चाहिए ताकि मच्छर के लार्वा नष्ट हो जाए। मच्छर दानी, मच्छर भगाने वाले रसायनों का उपयोग भी हितकर रहता है।
(B) जीवाणु जनित रोग
रोग के लक्षण : क्षय रोग के लक्षण 2-10 सप्ताह के भीतर प्रकट होते है। क्षय रोग का प्रमुख लक्षण एक विशिष्ट ज्वार प्रारूप है, जिससे रोगी को दोपहर में मंद ज्वर रहता है एवं रात्रि में अधिक पसीना आता है। फेफड़ों के क्षय रोगी को लगातार खाँसी होती है तथा बलगम के साथ खून आता है। इसके अतिरिक्त भूख न लगना, शारिरिक भर में निरन्तर कमी, जल्दी थकान, दुर्बलता आदि इस रोग के अन्य सामान्य लक्षण है।
रोकथाम एवं उपचार : रोग की रोकथाम हेतु संक्रमित व्यक्ति को चिकित्सक की देख-रेख में पृथक एवं स्वच्छ वातावरण में रखना चाहिए। रोगी के बलगम एवं थूक को एकत्र करके गड्ढे में डालकर निस्तारण करने से संक्रमण को बढ़ने से रोका जा सकता है। क्षय रोगों से बचाव हेतु बी.सी.जी. का टीका शिशु के जन्म के कुछ घंटों के भीतर अवश्य लगवाना चाहिए। रोग के उपचार एवं नियंत्रण हेतु एंटी ट्यूबरकूलर चिकित्सा (ए. टी. टी.) तथा डोट्स (DOTS) पद्धति उपलब्ध है।
(b) हैजा – हैजा एक अति तीव्र संक्रामक रोग है। जिसका रोगजनक विब्रियो कॉलेरी (Vibrio cholerae) नामक जीवाणु है, जो संदूषित भोजन एवं जल द्वारा संचरित होता है। घरेलू मक्खी इसका वाहक है।
रोग के लक्षण : रोग का प्रगटन काल 6 घंटे से 3 दिन होता है। रोग के लक्षणों में चावल के मांड के समान पतले दस्त, उल्टी, निर्जलीकरण, पेशियों ऐंठन तथा शारिरिक दुर्बलता मुख्य है। निर्जलीकरण का कारण उल्टी व दस्तों से पानी की हानि का होना है, यदि शिशु को तुरंत इसका उपचार न मिले तो उनकी मृत्यु तक भी हो सकती है।
रोग का उपचार : मेलों, तीर्थो तथा अधिक भीड़ एकत्र होने वाली जगहों में प्रवेश के समय हैजे का टीका लगाना अनिवार्य कर देने से रोग संचरण पर प्रभावी नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है, साथ ही इन स्थानों पर बिकने वाले खाद्य पदार्थों यथा मिठाइयाँ कटे फल आदि का स्वस्थ भण्डारण एवं उन्हें ढककर रखा जाना अनिवार्य हो। हैजा फैलने की दशा में तुरन्त टीका लगाकर बचा जा सकता है। हैजे के टीके की एक खुराक का असर छः माह तक रहता है। रोग होने की दशा में प्याज का रस अथवा नाइट्रोन्यूग्रेटिक अम्ल की 10-12 बूंदों के साथ 4-5 बूंदे अमृतधारा की जल में मिलाकर पिलाने से रोगी को लाभ होता है। निर्जलीकरण रोकने के लिए जीवन रक्षक घोल (ओ.आर.एस.) थोड़े-थोड़े समयांतराल में दिया जाना चाहिए।
रोग के लक्षण : इस रोग का प्रगटन काल 1-3 सप्ताह है। रोग लक्षण में संक्रमण के पश्चात एक सप्ताह तक श्री के तापमान में वृद्धि होती है जो दूसरे सप्ताह निरन्तर रहती है।। इसी दौरान पेट पर लाल दाने उभरने लगते है। तीसरे एवं चौथे सप्ताह में ज्वर में कमी आती है।
रोकथाम एवं उपचार : प्रभावशाली मल-मूत्र विसर्जन व्यवस्था एवं सफाई व्यवस्था से इसका आगे संक्रमण रोका जा सकता है। बचाव हेतु टायफाइड रोधी टीके टी.ए.बी. द्वारा प्रतिरक्षण करना चाहिए। वर्तमान में टायफाइड वैक्सीन, कैप्सूल के रूप में ओरल टायफाइड वैक्सीन (ओ.टी.वी.) के नाम से उपलब्ध है। वैक्सीन का असर तीन वर्षों तक रहता है। रोग होने की दशा में चिकित्सकों की सलाह से प्रतिजैविक औषधियां ली जा सकती है।
(d) कुष्ठ रोग – कुष्ठ रोग अथवा हेनसेन का रोग एक दीर्घकालीन रोग है जिसका रोगजनक माइकोबैक्टीरियम लैप्री (Mycobacterium leprae) नामक जीवाणु है। रोगी में सर्वाधिक संक्रमणकारी स्त्राव रोगी की नाक द्वारा होता है। संक्रमित माता से यह रोग शिशु तक पहुंच सकता है।
रोग के लक्षण : कुष्ठ रोग का प्रगटन काल 1-5 वर्ष है। इस रोग के जीवाणु, त्वचा एवं परिधीय तंत्रिका तंत्र को सर्वाधिक प्रभावित करते है। रोग लक्षण की प्रारंभिक अवस्था मे त्वचा पर संवेदनहीन चकते उभरते है जो बाद में फफोलों के रूप में फटकर घाव में बदल जाते है। रोग की तीव्रता बढ़ाने पर हाथ-पैरों की अंगुलियों में विकृति उत्पन्न हो जाती है तथा इनका क्षय हो जाता है।
रोकथाम एवं उपचार : संक्रमण के फैलाव को रोकने हेतु रोगी को चिकित्सकीय देख रेख में स्वच्छ स्थान में पृथक रखना चाहिए, इसके लिए सरकार ने कुष्ठ रोगियों हेतु विशेष आवास या कुष्ठ आश्रय बनवाये है। रोग नियंत्रण हेतु रोग की तीव्रता बढ़ने पर प्रभावित अंग को शल्य चिकित्सा द्वारा काटकर अलग कर दिया जाता है। रोग के उवचार में बी.सी.जी. का टीका उपयुक्त माना गया है।
(e) टेटेनस – यह एक घातक रोग है, जिनका रोगजनक क्लॉस्ट्रीडियम टिटेनि (Clostridium tetani) नामक जीवाणु है, जो मुख्यतः उपजाऊ मिट्टी, गोबर आदि में मिलते है तथा शरीर पर उत्पन्न घाव, कट आदि के द्वारा शरीर मे प्रवेश कर जाते है। ये आंत्र में एकत्र होकर वृद्धि करते है। इनमें टिटेनो स्पाजमीन नामक विषैला स्त्राव उत्पन्न होता है जो रोग का कारण है।
रोग के लक्षण : इस रोग में पीठ, जबड़े तथा गर्दन की मांसपेशियों में संकुचन होने लगता है। रोग की उग्रता में पूरा शरीर ऐंठ कर धनुषाकार ही जाता है तथा रोग की अंतिम अवस्था मे गर्दन की पेशियों में संकुचन के कारण श्वांस रुकने से रोगी की वेदना पूर्ण मृत्यु हो जाती है।
रोकथाम एवं उपचार : टेटेनस से बचाव हेतु शिशु डी.पी.टी. वैक्सीन की खुराक दी जाती है। नवजात शिशु में संक्रमण रोकने हेतु गर्भवती माताओं को प्रति टेटेनस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से चोट लगने के तुरंत पश्चात एन्टी टेटेनस सीरम (ए. टी. एस.) का इंजेक्शन लगाना चाहिए।
(3) प्रोटोज़ोआ जनित रोग
रोग के लक्षण : मलेरिया का प्रगटन काल 10-14 दिन का होता है। मलेरिया रोग के लक्षण में तीन चरण होते है, शीत चरण – जिसमे रोगी को सर्दी एवं कपकपी का अनुभव होता है। उष्ण चरण – इसमे रोगी को तेजी से बुखार आता है। स्वेदन चरण – इसमे पसीना आकर ताप सामान्य हो जाता है। ये तीनो चरण 24 या 28 या 72 घंटे पश्चात दोहराए जाते है। इसके अलावा सिरदर्द, मिचली, यकृत एवं प्लीहा का बढ़ जाना इसके अन्य लक्षण है।
(4) हैल्मिन्थिज जनित रोग
(a) हाथीपांव या फीलपांव – इसका रोग जनक संघ एस्केलमिन्थिज का कृमि वुचेरेरिया ब्रैंकॉफ्टाई (Wuchereria bancrofti) है, जो वाहक एडीज अथवा क्युलैक्स मच्छरों के काटने पर फैलता है। इस रोग के वयस्क कृमि, रोगी की लसिका ग्रन्थियों में पाए जाते है जबकि नवजात या सूक्ष्मकृमि रुधिर में उपस्थित रहते है। संक्रमित व्यक्ति को काटने पर सूक्ष्म कृमि मच्छर की लार ग्रन्थियों में आ जाते है। ऐसा मच्छर जब स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो संक्रमित हो जाता है।
रोग के लक्षण : वयस्क कृमि लसिका ग्रंथियों में पहुँच कर उन्हें अवरुद्ध कर देता है। जिनके कारण हाथ, पैर, छाती, वृषण कोष आदि सूज जाते है। मुख्यतः पैर अधिक सूजकर हाथी के समान दिखाई देने लगता है। साथ ही रोगी को बुखार आता है एवं लसिका वाहिनियां छोटी हो जाती है।
रोकथाम एवं उपचार : फीलपांव रोग का प्रसारण का कारण एडीज तथा क्युलैक्स मच्छर है अतः रोग से बचाव के लिए इन्हें नष्ट करना अति आवश्यक है। रोग होने की दशा में डाइईथाइलकार्बमेजिन नामक ओषधि का उपयोग चिकित्सक की सलाह से किया जाना चाहिए। ये औषधि बाजार में हेट्रोजन के नाम से उपलब्ध है।
रोग के लक्षण : रोगी की त्वचा पर फुंसी के समान उभार प्रकट होता है। जिसमें से मादा कृमि की पुंछ दिखाई देने लगती है। साथ ही इस स्थान पर सफेद स्त्राव होने लगता है, जो रोग की संक्रामक अवस्था है। फुंसी वाले स्थान से रोगी को अत्यधिक दर्द का अनुभव होता है।
(5) यौन रोग – “लैंगिक क्रिया अथवा यौन संबंधों से उत्पन्न रोग, यौन संक्रमित रोग कहलाते है।” यौन संक्रमित रोगों (STD) के रोगजनक वायरस, जीवाणु, कवक आदि होते है। जो संक्रमित व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) द्वारा यौन क्रियाओ के माध्यम से अन्य व्यक्तियों तक पहुंचते है। कुछ यौन रोगों का विवरण निम्न है।
एड्स का रोगजनक ह्यूमन इम्युनो डेफिशिएंसी वायरस (HIV) नामक रेट्रो वायरस है।
एड्स परीक्षण : एच. आई. वी परीक्षण के परिणाम, संक्रमण प्राप्त कर लेने के लगभग 3 माह पश्चात दृष्टिगोचर होते है। इस समयावधि को ‘विण्डो पीरियड’ कहते है। हमारे देश मे इसके परीक्षण हेतु एलिसा (ELISA) टेस्ट तथा वेस्टर्न ब्लॉस्ट टेस्ट उपलब्ध है जो रुधिर में एच.आई.वी. संक्रमण से उत्पन्न एच.आई.वी. एंटीबॉडीज या प्रतिरक्षी की उपस्थिति को बताते है। परीक्षण की आधुनिकतम विधि पॉलिमरेज चेन रिएक्शन (पी सी आर) है जो एच.आई.वी. की उपस्थिति का पता लगाता है। ये परीक्षण अधिक विश्वसनीय तथा शीघ्र परिणामकारक है।
रोग के लक्षण : जिस व्यक्ति के शरीर मे एच.आई.वी. संक्रमण पनप रहा है उसे “एच.आई.वी. सीरा पॉजिटिव” कहलाता है। यह व्यक्ति एड्स ग्रसित नही होता है परंतु संक्रमण के 15 से 57 माह के मध्य वायरस द्वारा श्वेत रुधिर कणिकाओं को नष्ट करना प्रारम्भ करने के साथ ही, प्रतिरक्षा तंत्र के दुर्बल हो जाने से एड्स के लक्षण दिखाई देने लगते है। ऐसा व्यक्ति अब एड्स ग्रसित कहलाता है। एड्स में प्रतिरक्षा तंत्र के दुर्बल हो जाने पर अनेक रोगों जैसे – क्षय, न्यूमोनिया आदि के रोगाणु शरीर मे आक्रमण कर देते है, इसे अवसरवादी संक्रमण कहते है। अंततः इन्ही रोगों के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है।
- रोगी को निरन्तर बुखार आना।
- फेफड़ो के संक्रमण जिससे लगातार खांसी का आना।
- लगातार दस्त होना।
- रुधिर प्लेटलेट्स की संख्या में कमी जिससे रक्तस्त्राव हो सकता है।
- केंद्रीय तांत्रिक तंत्र की क्षति जिसके फलस्वरूप सोचने, बोलने एवं स्मृति क्षीण हो जाती है।
- रोग की गंभीरता बढ़ने पर लसिका ग्रंथियां सूज जाती है, निरन्तर बुखार रहता है एवं शरीर का भार गिरने लगता है।
- रोग के चरम पर पहुंचने पर तीन वर्ष के भीतर व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
रोकथाम एवं उपचार :